बजती बाँसुरी कृष्ण की थी गजब,
लोग होते मोहित दुख को भूल कर।
बहने लगती हवा मदमाती वहाँ,
सतरंगी फर्श बिछ जाती जहाँ।
दौड़ती गोपियाँ नींद से उठ कर,
लोग होते मोहित दुख को भूल कर।
चाँद की चाँदनी ऐसी देती आभा,
ठीक यमुना किनारे बरसती विभा।
नाचती गोपियाँ वहाँ झूम-झूम कर,
लोग होते मोहित दुख को भूल कर।
ये धरती वही आसमाँ भी वही,
बाँसुरी भी वही पर वो वादक नहीं।
कोई ला दे वो वादक पुन: ढूँढ कर,
लोग होते मोहित दुख को भूल कर।
वीरता विद्वता संग सुन्दरता,
कृष्ण के ये सिवा है नहीं मिलता।
लिखा मैं इसे हूँ बहुत तौल कर,
लोग होते मोहित दुख को भूल कर।
पशुपतिनाथ प्रसाद - पश्चिम चंपारण (बिहार)