गणतंत्र दिवस - कविता - राघवेंद्र सिंह

नव रवि का नव अभ्युदय, था नव राष्ट्र का आवाहन।
अरुण बना मधुमय दिवस, संविधान बना जिसका वाहन।।

मुक्त हुई यह स्वर्ण धरा, नव पल्लव का हुआ उदय।
प्रज्वलित रक्त से हुआ राष्ट्र, चमक रहा वह बन अजय।।

सत्ताधीश हो गए शिथिल, पग बीच धरा जो थी छीनी।
हो गए लुप्त वे समरभूमि, निज हाथों से लाशें बीनी।।

वर्षों के संघर्ष थे अगणित, आया दिवस वह ऐतिहासिक।
एकता दिखी हर शख़्स यहाँ, जो भारत के थे बहु-भाषिक।।

अखण्ड हुआ यह दिव्य राष्ट्र, हर्षित हो तिरंगा लहराया।
बलिदान हुआ जो राष्ट्र प्रेम, सम्मान गीत उनके गाया।।

अधिकार मिले कर्तव्य दिए, हर जन का हुआ रव स्वतंत्र।
कतरे-कतरे से बना राष्ट्र, जन-जन से बना है गणतंत्र।।

वन्दे मातरम् बोल मेरे, और इन्क़लाब का है नारा।
जान न्योछावर हर वीर के सर, रंग केसरिया था धारा।।

देशप्रेम का दीपक बन, यहीं दिवाली बनी ईद।
मिला तिरंगा उसे कफ़न, जो देश प्रेम में हुआ शहीद।।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos