रमेश चन्द्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)
आँखें - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी
शुक्रवार, जनवरी 07, 2022
आँखें जता
देती है कि
तुम ख़ुश हो या हो अवसाद में।
आँखों से होता है,
उजागर कि
तुम विनोद में रमे
या हो विवाद में।
आँखों से अवलोकित
भावो को
पढ़ लिया करते है।
आँखें देखकर
ही मन के विचार
बदल लिया करते है।
आँखें ही तो है
जो नयन लड़ा लेती है।
आँखों से ही निहार
ओरो को अपना
बना लेती है।
आँखें ही जब
दो से चार होती है
जब ज़िंदगी होती है वाद विवाद में।
आँखें जता देती है की
तुम ख़ुश हो या हो
अवसाद में।
आँख लग जाए
तो जीवन का
फ़साना बन जाता है।
अगर आँख खुल जाए
तो जीवन जीने का
बहाना मिल जाता है।
माँ की आँखें
देखकर हम
ख़ूब शैतानी
किया करते थे,
पर पापा की
आँखों से
हमेशा-हमेशा
किनारा किया करते थे।
आँखों से ही तो
कभी भाव विभोर
अश्रु टपक जाते है,
आँखें ही कभी
हमदर्द बन जी भर रोकर
मन को हल्का कर लेते है।
आँखों से ही
मान सम्मान
मानुष रहता संवाद में,
आँखें जाता देती है की
तुम खुश हो या हो अवसाद में।
आँखें ही
वर्षो बाद मिलान की
पराकाष्ठा बता देती है,
आँखें ही
दिल की टीस,
उकेर मानव को,
धता बता देती है।
आँखों से ही
शीरीं फ़रहाद की कहानी
दुहराते है लोग,
और आँखों से
अपने ही बेगाने हो जाते है लोग।
आँखों से ही
प्रेम का सबक़
सीख बन जाते है लोग दीवाने,
आँखों से ही
आत्मा परमात्मा में,
ध्यान लगा कर बन जाते है
लोग सयाने।
आँखों में जब
नींद नहीं आती,
जब दिल रहता उन्माद में
आँखें जता देती है कि
तुम ख़ुश हो
या हो अवसाद में।
आँखें लगें
तो ऐसी लगें
ध्रुब ने लिया
परमात्मा का सहारा,
और आँखें बिफरे तो
ऐसी कि लोग देशद्रोही से
करे किनारा।
आँखें है तो जग है,
अपना सहारा।
आँखें नहीं तो अपने ही
करते किनारा
जिसने नैनो की भाषा पढ़ डाली
वो नर जीता हर संवाद में।
आँखें जता देती है की
तुम ख़ुश हो या हो
अवसाद में।
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