ज़िंदगी - कविता - डॉ॰ सहाना प्रसाद

अजीब है यह ज़िंदगी
बचपन गुज़र गया,
जवानी बीती,
बुढ़ापा आ गया
पर समझ नही आया। 
कैसे संभाले दूसरो को,
कैसे संभाले ख़ुद को,
जब सोचा हो गए सयाने,
निभा पाएँगे सब कुछ
तब लगा एक और धक्का।
उफ, कैसे है इसकी चाल
चलते चलते क़दम
डगमगा जाते है
जब सोचा की संभल गए,
फिर फिसल जाते है।

डॉ॰ सहाना प्रसाद - बेंगलुरु (कर्नाटक)

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