परिधान - कविता - बृज उमराव

सादगी पूर्ण स्वच्छ सुन्दर,
परिधान प्रभावी सदा गरल।
आकर्षण का केन्द्र बिन्दु,
आवरण सदा तन के ऊपर।।

बदन सुरक्षित मन संतृप्त,
दस में अलग दिखाई दे। 
जो देखे वह वाह कहे,
प्रशंसा हर तरफ़ सुनाई दे।। 

कटि भाग दिखे उज्जवल उज्जवल,
धारण क्या कर लिया आज। 
कैसा यह पहनावा है?
करती हैं नजरें स्वयं लाज।। 

वसन सदा हों स्वच्छ सरल,
नज़रों में परदा पड़ा रहे। 
प्रथम नज़र में वाह कहें,
अधिभाग बदन का ढका रहे।। 

खाना खजाना और जनाना,
यह आवरण की बातें हैं। 
बदलते समय की धार देख,
सब जन इनसे कतराते हैं।। 

धारा के तुम साथ चलो,
पर जड़ को तुम मत जाना भूल। 
फूल फूल सब चुन लेंगे,
तुम्हें बचेंगे केवल शूल।। 

विज्ञान संस्कृति परम्परा,
में तालमेल तुमको रखना। 
समय को यदि न पहचाना,
कष्ट पड़े तुमको सहना।। 

मन को साफ़ सदा रखिए,
तन की स्वच्छता ज़रूरी है। 
जीवन रहे सदाचारी,
यह ख़ुद की मजबूरी है।। 

भावावेश की ग़लती में,
जीवन भर पछताते हैं। 
स्वच्छ वसन उजले तन में,
भ्रमर स्वयं बन जाते हैं।। 

बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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