कोहरा - कविता - अमरेश सिंह भदौरिया

कोहरा बहुत घना है।
कोहरा बहुत घना है।

दूर हुई सूरज से लाली,
रश्मियों ने ख़ामोशी पाली, 
सर्द हुई मौसम की राते,
घोसले में पंछी घबराते,
जाड़े की ऋतुओं में दिन,
रातों का पर्याय बना है।
कोहरा बहुत घना है।
कोहरा बहुत घना है।

कुहासे में छिप गई बस्तियाँ,
काँपती ठिठुरन में अस्थियाँ,
सिकुड़न आई अँतड़ियों में,
अलाव जलते झोपड़ियों में, 
झंझानिल आघात सहने को,
परदा द्वार तना है। 
कोहरा बहुत घना है।
कोहरा बहुत घना है।

जीविका की टूटी आशाएँ,
ढकी धुंध में सभी दिशाएँ,
भूख से बच्चे ब्याकुल होते,
रोटी के सवाल पर रोते,
अभाव के संग जीवन जीना,
समाज में अभिशाप बना है।
कोहरा बहुत घना है।
कोहरा बहुत घना है।

खाई ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती,
चौड़ाई भी रूप बढ़ाती,
निर्बल साँसों का क़हर जो टूटा,
समझो ज्वालामुखी है फूटा,
जब-जब भड़की है चिनगारी।
रूप उसका अंगार बना है।
कोहरा बहुत घना है।
कोहरा बहुत घना है।

अमरेश सिंह भदौरिया - रायबरेली (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos