मैं कोई फ़नकार नहीं हूँ,
औरों की सरकार नहीं हूँ।
लिख देता हूँ मन की पीड़ा
बेदर्द कलमकार नहीं हूँ।
पन्ने और सजाते होंगे,
कलमी हार बनाते होंगे।
मैं मन की वेदन लिखता हूँ,
वे धन मान बढ़ाते होंगे।
जो तोड़ मरोड़ बनाते हैं,
वे शानो-शौकत पाते हैं।
मैं झुग्गी-झोंपड़ रहता हूँ,
वे पल में महल बनाते हैं।
औरों के भाव चुराते हैं,
काव्यसर्जक बन जाते हैं।
मैं धूल सना ही रहता हूँ,
वे नील गगन चढ़ जाते हैं।
धूल सना खोटा कवि हूँ मेैं,
पर जनमानस की छवि हूँ मैं।
वे सब होंगे चाँद जगत के,
पर अपने मन का रवि हूँ मैं।
मेरी उनसे होड़ नहीं है,
अंधी मेरी दौड़ नहीं है।
वे मालिक हैं उन सपनों के,
जिनसे मेरा जोड़ नहीं है।
गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)