अग्निवृष्टि - कविता - मयंक द्विवेदी

रवि की प्रथम रश्मि,
रश्मिकर, कर नव सृष्टि।
उठा, जगा पुरुषत्व को,
दुर्बलता पर कर, अग्निवृष्टि।
सामने हो मृग मरीचिका,
खींच हाथ में प्रत्यञ्चा,
चीर वक्ष, ले अवतार नरसिंह का,
आय समय अब अंत का।
और हो, चहुँओर हो,
युद्ध अब घनघोर हो,
त्रिनेत्र बन खोल दृष्टि,
दुर्बलता पर कर अग्निवृष्टि।
बार-बार की दुर्गति,
सहन नहीं, अब क्षम्य नहीं,
रूप विकराल हो, महाकाल हो,
काल का भी काल बन,
विष का भी पान कर,
विजय गान ही हो संतृप्ति।
उठा जगा पुरुषत्व को,
दुर्बलता पर कर अग्निवृष्टि।

मयंक द्विवेदी - गलियाकोट, डुंगरपुर (राजस्थान)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos