मंज़िल पुकार रही है - कविता - आशीष कुमार

बना दो क़दम के निशान,
कि मंज़िल पुकार रही है।
थाम लो हाथों में हाथ,
कि वक़्त की पुकार यही है।

बनकर मुसाफ़िर चलते जाना,
मंज़िल से पहले रुक न जाना।
तुम्हारी राहें निहार रही है,
देखो मंज़िल पुकार रही है।

न जाने कौन शाम आख़िरी हो,
जीवन का कौन पड़ाव आख़िरी हो।
चलते रहो प्रगति पथ पर,
न जाने कौन रात आख़िरी हो।

सीपी बिन मोती नहीं बनते,
तपे बिन कुंदन नहीं होते।
जब तक ना हो धूप जीवन में,
ख़ुशियों के दर्शन नहीं होते।

देखे जो सपने उनका सरोकार यही है,
आगे बढ़ कि मंज़िल पुकार रही है।
कर्तव्य पथ की भी दरकार यही है,
पा ले मंज़िल कि वक़्त की पुकार यही है।

हाथों में मशाल ले ले,
जोश-जुनून की ढाल ले ले।
माँ शारदे 'आशीष' वार रही हैं,
तू बढ़ कि मंज़िल पुकार रही है।

आशीष कुमार - रोहतास (बिहार)

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