ज्ञान की ज्योत - कविता - आदेश आर्य 'बसंत'

विजित हो रहा हूँ मैं ख़ुद,
उस कायरता से जो अंदर थी।
बाहर तो बस चंचलता थी,
अंदर विचारों की आँधी थी।

दिखलाना था ख़ुद का चेहरा ख़ुद को,
दर्पण में तो मेरी परछाई थी।
मुझको बहकाती मेरे ही बल से,
कैसी उसने ये ताक़त पाई थी।

आज यक़ीनन समझ यह गया,
जो मन में यह उल्लास जगा।
हारा नहीं था कदापि कभी भी,
शायद ख़ुद से ही ठगा गया।

लोग कदाचित सही बताते,
लेकिन सुध-बुध खोई थी।
या तो मैं निद्रा में था लीन,
या फिर क़िस्मत सोई थी।

ना थी परवाह कभी किसी की,
ना ख़ुद पर अभिमान किया।
ना मुझसे दिल गया दुखाया,
ना ही दुर्लभ काम किया।

सिमटी सी छोटी सी दुनिया, 
जिसमे कुछ था ज्ञान समाया। 
सवाल जवाब मैं ख़ुद ही था,
ख़ुद से ही मैं था भरमाया।

स्वप्न लोक के सागर से कब ना जाने,
अपनी नौका पार लगी।
विजित हो गया हूँ मैं ख़ुद शायद, 
अंतर्मन में आज ज्ञान की ज्योत जगी।

आदेश आर्य 'बसन्त' - पीलीभीत (उत्तर प्रदेश)

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