अपनी ढपली अपना-अपना राग - कविता - डॉ॰ मीनू पूनिया

सुखा फूल मुरझा कर पड़ा जो सड़क पर,
किसी को लगे गंध तो किसी को पराग।
आज सब हैं अपनी मर्ज़ी के मालिक,
सबकी अपनी ढपली अपना-अपना राग।
सफ़ेद बोर्ड पर छोटा काला बिंदु लगाकर,
मीनू ने एक बार भीड़ को था आज़माया।
जो दिखे बोर्ड पर वो तुम सब बयाँ करो,
सबके हाथों में क़लम काग़ज़ थमाया।
बयाँ करने का जब समय हुआ ख़त्म,
सबने व्याख्या लिखकर पर्चा थमाया।
भीड़ का परिणाम देखकर चकरा गया माथा,
अधिकतर ने मात्र काले बिंदु के बारे में बताया।
समझ नहीं आया तब क्या बोले मीनू उन सबको,
या कलयुगी नकारात्मकता का दिया जाए नाम।
एक प्रतिशत जगह घेरे था काला बिंदु मात्र,
बोर्ड की 99 प्रतिशत सफ़ेदी क्यूँ हुई गुमनाम।
विपरीत चीज़ों की तरफ़ खिंच रहे हम आज,
सकारात्मकता शामिल नहीं हमारी दिनचर्या में
ना चाहते हुए भी भेड़ चाल को नित दोहराएँ,
सिर दर्द बना काम काज मशीनों की आड़ में।

डॉ॰ मीनू पूनिया - जयपुर (राजस्थान)

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