वेग - कविता - महेश 'अनजाना'

बहे जो वेग बनकर
और कभी रुके नहीं।
चाहे रास्ते हो लम्बी,
मगर कभी थके नहीं।

नदियाँ जो बहती हैं
कलकल करती हैं।
पत्थर मिले तो संग,
संग मचल उठती हैं।
पत्थर हिले नहीं तो
धारा बदल लेती हैं।
पत्थर को सहलाती,
आगे निकल लेती हैं।

नदी का वेग में रहना
उसकी नियति है।
नाला नहीं नदी है
और नदी बहती है।
क्योंकि नदियों का बहना
देश की संस्कृति है।

महेश 'अनजाना' - जमालपुर (बिहार)

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