संघर्ष की ज्वाला - कविता - निकिता मिश्रा

ये ज्वाला यूँ धधकती है,
न जाने कितनों को ये सबक़ देती है।
सुभाष चन्द्र में भी धधकती एक ज्वाला थी,
ये ज्वाला क्रांति के लिए उनमे भड़की थी।
मातृ भूमि के प्रति स्वाभिमान की ज्वाला, 
सुभाष चंद्र ने ही लोगों में जागृत की थी।

ये ज्वाला यूँ धधकती है,
किसानों को ये संघर्ष के लिए प्रेरित करती है।
चूल्हे की आग ना सिर्फ़ पेट उनका भरती है,
बल्कि उस आग की लपट में
वो जज़्बा भी उनका बनाए रखती है।
और संघर्ष की ज्वाला जलाए रखती है।।

ये ज्वाला यूँ धधकती है,
जैसे अन्तर्मन को खुरेदती है।
जो बोलने को आतुर है
लेकिन विवश है असहाय है,
ये अमीरो की नही ग़रीबों की बात है।
ये भेद भाव को मिटाना है,
इस ज्वाला को ग़रीबो में भी जलाना है।

ये ज्वाला यूँ धधकती है,
प्रह्लाद जैसे लाखो की ये परीक्षा लेती है।
ये ज्वाला वो ही पार करता है,
जो सत्य के मार्ग पर होता है।
ये ज्वाला यूँ धधकती है,
जैसे रोम-रोम को ये छुब्ध कर देती है।
जैसे रोम-रोम को ये छुब्ध कर देती है।
पर ये ज्वाला कुछ ऐसे ही धधकती है।।

निकिता मिश्रा - वाराणसी (उतर प्रदेश)

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