ओ पौरुषेय! न मानो हारी - कविता - शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली'

क्षणिक जीवनी
यह मेला है
जाने की कर लो तैयारी।
बिखरा जो कुछ, उसे 
समेटो
पर कुछ करके ऐसा जाना-
फूले सदा तुम्हारी क्यारी।

क्षणभंगुर जग
आह! खिलौना
काल खड़ा है पीछे हँसता।
माया छोड़ो
ममता छोड़ो
अपना ही अपनों को डसता।
जिसको सींचा
पौध बन गया
फूली घर की फुलवारी।
किन्तु न चिंता, तुम कैसे हो?
पर संबल का लिए सहारा-
ओ पौरुषेय! न मानो हारी।

सूर्य उगा 
मार्तण्ड बन गया
क्षितिज छिप गया रक्तिम धारी।
पुलिनों नें थामा अपने को-
जो भटके थे निज अपना पथ
पर धारा तट छोंड़ सिधारी।
तेरा सब कुछ 
सब छीनेंगे
अर्थी केवल पथिक सवारी।
फिर भी माया बन्धन लिपटा
जाग पथिक तू-
खेल, जीत ले अपनी पारी।

चल सब छोड़, न कोई तेरा
तिनके-तिनके जोड़ा तूने
और बनाया रैन बसेरा।
श्रमवीथी पर चलते-चलते
कितनों में की प्राण प्रतिष्ठा
सबने देखा सुखद सबेरा।
सबको लिए समेटे चलता
दु:ख में सुख में भागा-भागा
और निभाई दुनियादारी।
तुम्हें 'अंशुमाली' सब भूले
पर तुम दीप जलाए रखना-
आह! कटेगी घन अंधियारी।

शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली' - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)

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