जीवन-काया - कविता - सुरेंद्र प्रजापति

अरी माधुरी, तृप्त हो जाते
स्वर-रस की, कोमलता से।
स्रवण करते नेह के मोती,
भू के, करुण शीतलता से।

बन्धु, देख लो महाजीवन में
नश्वरता के निश्चित, जय को।
धरा को जो सौंदर्य मिला है
नहीं सुलभ अम्बर-विजय को।

हम कितने लाचार कंठ से,
गन्ध-रस को, पीनेवाले हैं।
स्वाद भोग का, नहीं कभी
सिर्फ़, ज़ख़्म में जीनेवाले हैं।

रूप सौंदर्य का देह भोगते,
तृष्णा, भर-भर के नयन से।
क्षुभा उमड़ता है रस पी लें,
वासना के हास, उपवन से।

देख रूप-सौंदर्य चंचलता
जब मन में ज्वार उठता है।
किसी पाषाण के हृदय में
जीवन का स्रोत, फूटता है।

मन की चंचलता की तृप्ति,
को, क्षुधा व्याकुल जगता है।
किसी शांत सरवर में फिर;
अनिवर्चनीय, तरंग पलता है।

उठती हुई, पीड़ा भूलने की
कोई मार्ग नहीं, मिलता है।
वेदना के प्रबल आवेग में
कोई सुमन नहीं खिलता है।

किन्तु, मरणशील जीवन पर
कभी कोई, प्रतिरोध नहीं है।
निर्मल प्रेम के पवित्र ग्रन्थ पर
कभी, कोई गतिरोध नहीं है।

स्वयं, के गुण कार्य कुशलता,
कि तुम मानव या देव बनोगे।
रस-अलंकार में फँसे रहोगे,
या सुमनों के जयमाल बनोगे।

वो स्वत्व कहाँ, है नर में
बन देव, अमृत को पाए।
अमल पुष्प के उपवन से
आगे, देव नहीं जा पाए।

मानव, मानव ही रहता है,
देवत्व नहीं पा सकता है।
गन्ध बिखेरना छोड़ पुष्प,
कभी विष न फैला सकता है।

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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