अन्नदाता - कविता - समय सिंह जौल

चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर भोर हुए जग जाता है,
लिए कुदाली कंधे पर अपने खेत पहुँच जब जाता है।
धरा का चीर कर सीना नए अंकुर उगाता है,
मेरे देश का असली मालिक अन्नदाता कहलाता है।।

दिनभर कड़कती धूप और काली घटाओं में,
लड़ अड़ जाए यह योद्धा आसमानी आपदाओं में।
अन्न उगाकर मेहनत से हमें भोजन खिलाता है,
मेरे देश का असली मालिक अन्नदाता कहलाता है।।

हो महीना जेठ पूस का सब एक जैसा लगता है,
यह बेटा है भारत माँ का कठिन श्रम झेल जाता है।
इसका पसीना ओस बनकर पत्तियों को चमकाता है,
मेरे देश का असली मालिक अन्नदाता कहलाता है।।

जिस ललाट के श्वेत रक्त से धरती तर हो जाती है,
कड़ी धूप में तिल-तिल जलकर होम वहीं हो जाती है।
देश की भूख मिटाने वाला ख़ुद भूखा ही सो जाता है,
मेरे देश का असली मालिक अन्नदाता कहलाता है।।

जब भी सूखा पड़ जाए हृदय विदारक मंज़र है,
पसलियों से लड़ जाती आँते खेत अभी भी बंजर है।
क़र्ज़वान हैं हम इनके वह क़र्ज़ तले दब जाता है,
मेरे देश का असली मालिक अन्नदाता कहलाता है।।

समय सिंह जौल - दिल्ली

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