ये वक़्त जो खिसक रहा हैं चाँद की उड़ान में - ग़ज़ल - कर्मवीर सिरोवा

अरकान : मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
तक़ती : 1212  1212  1212  1212

ये वक़्त जो खिसक रहा हैं चाँद की उड़ान में,
उत्सुकता की चादर फैली हैं कवि के मकान में। 

दिख रही हैं बारिश की धारा बहते नीर लिए,
अब्र-ओ-कायनात रो पड़ा कवि के दरमियान में।

हो वस्ल गर निस्बत से पहले, ये बे-ईमानी हैं,
व्याकुलता की तरंगें उड़ रही कवि के ध्यान में।

संगत-ए-तन्हाई गुफ़्तगू-ए-दिल साझा करते हैं,
हो मयस्सर अब तिरी दीद कवि के ख़ानदान में।

आस्ताँ-ए-वफ़ा की जानिब मसर्रत से आऊँगा,
अब मिटेंगी ब'अद-ए-हिज्र कवि के ज़मान में। 

जल रहा हैं मिरा क़तरा-क़तरा तिरे इंतिज़ार में,
अब तो आ जाओ आशुफ़्ता कवि के जहान में।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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