पाँच दिनों का आगमन - लेख - अभिजीत कुमार सिंह

मैं कोई चिकित्सक नहीं हूँ ना ही मेरा दूर-दूर तक वैद्यक-संबंधित क्षेत्रों से नाता है किन्तु इस समाज का एक साधारण हिस्सा हूँ वो भी पुरुष के रूप में। जैसा किसी को बताना यह अनिवार्य नहीं है की हमारा समाज एक पुरुष प्रधान सोच में सिमटा है इसी सोच का ख़ामियाज़ा कितनी ही महिलाओ को भुगतना पड़ता है ये और कोई नहीं हमारी ही महिलाए है जो निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग परिवारों से ताल्लुक़ रखती है जब इनकी ज़िंदगी में उन पाँच दिनों का आगमन होता है जो की बहुत ही ज़्यादा दुखदायक होता है फिर भी परिवारों के सदस्यों की कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती न किसी सदस्य को यह महसूस होता है जो महिला हमारे कुटुंब की देखभाल कर रही है वह उन पाँच दिनों से कैसे गुज़रती होगी बदले में हम उनके पारिवारिक कार्यो में उनकी सहायता करने की बजाये अपनी सुख सुविधा का ज़्यादा ख़्याल रखते है हम लोगों यह नहीं जानना चाहते की उन पाँच दिनों में महिलाए कितनी कमज़ोर हो जाती है शरीर से रक्त रिसाव के कारण सिर घूमने लगता है अपने आप को वे बीमार सा महसूस करती हैं कई लोग तो इसको घृणा की नज़र से देखते है आप लोग सोच रहे होंगे ये मैं क्या बोल रहा हूँ पर हक़ीक़त यही है मित्रों कभी किसी पुरुष ने महिलाओं की इस घटती शारीरिक क्रियाओं में शरीर के विश्राम का समर्थन नहीं किया उनकी सोच तो यही तक है की ये मासिक विधि है जिसको सैनिटरी पैड से रोक दिया जाता है हम यह भूल जाते है की रक्त रिसाव की प्रक्रिया तो सैनिटरी पैड को तो रोक लेता है पर उसकी पीड़ा, कष्ट और कमज़ोरी को नहीं रोकता हैं।
यह तो मै वर्तमान भारत और हमारे आधुनिक समाजी सोच का उदहारण दे रहा हूँ। पर भारत के कई पिछड़े क्षेत्रों की बात करे तो वहाँ अभी भी सैनिटरी पैड का प्रचार नहीं है। दुखद बात तो ये है की महिलाओं के इस दुखदायक आंतरिक क्रिया को भिन्न-भिन्न नज़रियों से देखा जाता है उन्हें परिवार से वंचित करके जबतक यह क्रिया चलती है तबतक उनको अलग थलग रखा जाता है, कितना मानसिक प्रताड़ना देने वाला क्षण होता होगा। इस प्रताड़ना का अधिकतर श्रेय जागरूकता फैलाने में विफल होती सरकारों को जाता है और कुछ हद तक प्रथम पुरुष विचारों और उन महिलाओं को जो पाखंड, आंडबरों में फँसी हुई हैं।
बाक़ी मै अंतिम कुछ शब्दों में यही कहना चाहूँगा कि हम पुरुषो को महिलाओं के इस मासिक विधि आगमन को पूर्ण रूप से समझना होगा उनकी शारीरिक अवस्था को संभालना होगा। उनके कार्य में अपनी उपस्थिति का सम्पूर्ण योगदान देना होगा। जितना हो सके उनके विश्राम का समर्थन करना होगा हमें उनको यह बताना होगा की इस समाज और परिवार की जीतनी ज़रूरत हम है उतनी ही वो है और जितनी सुविधाओं का अधिकार हमारा है उतना ही उनका है।  
मुझे इस दृष्टिकोण से समाज का बदलाव नहीं चाहिए। ज़रूरत तो इसकी है की हमारा समाज हमारा देश ऐसे दृष्टिकोण और जागरूकता का उदाहरण दे। 

अभिजीत कुमार सिंह - चंडीगढ़

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