सूना-सूना लगता है - कविता - प्रवीन 'पथिक'

तेरे बिन घर अपना ये,
सूना-सूना लगता है।

फूलों ने खिलना छोड़ दिया,
भौरों ने भी मुख मोड़ लिया।
पौधे बिन जल के सूख गए,
सबने निज बंधन तोड़ दिया।

गृहकुंज का एकाकीपन,
अब दूना सा लगता है।
तेरे बिन घर अपना ये,
सूना-सूना लगता है।

तू थी तो लगता जैसे यूँ,
मौसम में भी मादकता है।
तेरे बिन क्या कहूँ 'माँ' तुझसे,
जीने की क्या सार्थकता है?

जीवन का पल-पल तब,
भूना-भूना लगता है।
तेरे बिन घर अपना ये,
सूना-सूना लगता है।

टूट जाता, घर जब आता
तेरे वहाँ न होने से।
खो दिया सब कुछ मैंने यूँ,
ख़ुद को तुझसे खोने से।

सजल नयनों का कोना,
भीना-भीना लगता है।
तेरे बिन घर अपना ये,
सूना-सूना लगता है।

ऐसा कभी न होता,
कि, तू वहाँ न होती है।
तेरी ममता की ख़ुशबू तो,
सम्पूर्ण सदन में सोती है।

एक पल का समय भी,
महीना-सा लगता है।
तेरे बिन घर अपना ये,
सूना-सूना लगता है।

माँ, तेरी ममता में लगता,
छिपा जीवन का सार हो।
जन्म ले धरती पर आऊँ,
तेरी आँचल का आधार हो।

सिवाय तेरे सपना मेरा,
झीना-झीना लगता है।
तेरे बिन घर अपना ये,
सूना-सूना लगता है।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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