खोज - कविता - विनय विश्वा

शब्दों को ढूँढ़ता है
की मंज़िल को ढूँढ़ता है,
हर घड़ी मेरा दिल
अभिव्यक्ति को ढूँढ़ता है।

यादों को ढूँढ़ता है
की ख़्वाबों को ढूँढ़ता है,
हर घड़ी मेरा दिल
चाहत को ढूँढ़ता है।

पाया है मैंने सफ़र
की इस जीवन को ढूँढ़ता है,
लगता है एक समर
की आरज़ू को ढूँढ़ता है।

आओ पास बैठकर
दो-चार मीठी बातें कर ले,
की हर घड़ी बैठकर इस जगत में
विचारों को ढूँढ़ता है,
आचारों को ढूढता है।

कहाँ गई वो मानव की मानवता
की अब इस जहाँ में
माधुर्य स्नेह को ढूँढ़ता है,
उस प्रेम को ढूँढ़ता है,
उस सत्य को ढूँढ़ता है।

इस जहाँ में कर गुज़रने को
उस सत्पथ को ढूँढ़ता है,
उस ज्ञान को ढूँढ़ता है।

विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)

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