एक नई शुरुआत - कविता - आर्तिका श्रीवास्तव

एक नई शुरुआत करी है
मैंने अपने जीवन की,
जिसमें चाहत बुन रहा हूँ
मैं अपने हर रिश्ते की।

बरसों से जो छूटा था
रोज़ी-रोटी कमाने में,
हर रिश्ता जो भुला था
मैंने मंज़िल पाने में।

जीवन की आपा धापी में
मैं वक़्त के हाथो मजबूर हुआ,
पर ग़लती मेरी यह थी कि
हर रिश्ते से दूर हुआ।

बीते सालों में कितने अपने
बिन बोले ही दूर गए,
उनको भी मैं न मिल पाया 
जो दुनिया को छोड़ गए।

सेवा निवृत हुआ हूँ अब
तब यह मैं हूँ सोच रहा,
मंज़िल तो पाई मैंने पर
अपनों से मैं हुआ जुदा।

माँ-बाप बहन और भाई
सबको पीछे छोड़ दिया,
काका-काकी मौसी-मामा
सबसे ही मुँह मोड़ लिया।

अब मैंने है प्रण यह लिया
फिर से सबसे मिलना है,
बचपन की तरह ही अब 
मुझे सबसे रिश्ता रखना है।

अपनी ग़लती मानी मैंने
और सुधार अब करना है,
हर अपने से मुझको अब
प्यार मोहब्बत रखना है।

दंभ नहीं दिखाना अब तो
पहल मुझे ही करना है,
छोटा बड़ा कोई भी हो
मुझे सबके लिए सुधरना है।

प्यार सभी से करता हूँ अब
जीवन जीने का अंदाज़ नया,
इस नई शुरुआत ने मुझको
फिर सबसे है जोड़ दिया।

आर्तिका श्रीवास्तव - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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