खिड़की - कविता - शुभोदीप चट्टोपाधाय

मेरे घर में जो खिड़की है वो,
मेरे इस शरीर के समान है
और खिड़की के इस तरफ़ फँसा मैं, 
मेरे अंदर रहने वाले जीवात्मा के समान।
और उस खिड़की में गड़े वो 11 लोहे के शक्त रोड,
मेरे तन के उन 11000 पापो के समान है 
जिन्हें अगर मैं तोड़ दूँ,
तो ये छोटी खिड़की दरवाज़ा बन सकती है,
जिसके उस पार निकल मैं 
उस खेत के बीच खड़ा होकर
एक अलग कविता लिख सकता हूँ,
उस हरे मंच में बैठ नई कविता पढ़ सकता हूँ।।

शुभोदीप चट्टोपाधाय - धनबाद (झारखण्ड)

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