आदमी होने का सच - कविता - डॉ॰ आलोक चांटिया

माना की आज मन हताश है,
पर बंजर में भी एक आस है।
चला कर तो एक बार देख लो,
अपाहिज में चलने की प्यास है।
कह कर मुझे मरा क्यों हँसते,
यह भी लीला उसकी रास है।
लौट कर आऊँगा या नही मैं,
क्या पता किसको एहसास है।
लेकिन ये सच कैसे झूठ कहूँ,
मौत के पार भी कोई प्रकाश है।
आओ बढ़ कर उँगली थाम लो,
हार कर भी मुझमे उजास है।
पागल मुझको कहकर ख़ुद ही,
देखो आज वो किसकी लाश है।
आज कर लो जो मन में है कही,
जाते हुए न कहना मन निराश है।
सभी को नहीं मिलता आदमी यहाँ,
आज जानवरों का यही परिहास है।

डॉ॰ आलोक चांटिया - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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