ख़ामोशी है पसरी ग़ज़ल रुबाई चुप है - ग़ज़ल - मनीषा श्रीवास्तव 'ज़िंदगी'

अरकान: फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
तक़ती: 22 22 22 22 22 22

ख़ामोशी है पसरी ग़ज़ल रुबाई चुप है,
फ़िज़ा में गूँजती हुई ये तन्हाई चुप है।

दर्द छुपा बैठी दुल्हन घूँघट में अपने,
उसके आँगन में बजती शहनाई चुप है।

रूठ गया शृंगार नया-नया है उसका,
चेहरे पे बिंदिया लाली की रानाई चुप है।

तन्हाई से दामन जोड़ लिया है उसने,
उसकी अठखेलियाँ और अँगड़ाई चुप है।

नवजीवन के ख़्वाब बुने थे संग में उसने,
उसका वो हमदम आशिक़ शैदाई चुप है।

अम्बर से भी बरस रहीं लहू की बुँदे,
आँगन की तुलसी बाग़ अमराई चुप है।

छोड़ दी ज़िंदगी उसने जीने की उम्र में,
माँ-पिता के आँखों की गहराई चुप है।

मनीषा श्रीवास्तव 'ज़िंदगी' - बाराबंकी (उत्तर प्रदेश)

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