पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)
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तुम मुझे संरक्षण दो, मैं तुम्हें हरियाली दूँगा - कविता - पारो शैवलिनी
तुम मुझे संरक्षण दो, मैं तुम्हें हरियाली दूँगा - कविता - पारो शैवलिनी
गुरुवार, अगस्त 12, 2021
काटो और काटो
और और काटो
क्योंकि, कटना ही तो नियति है मेरी।
अगर कटूँगा नहीं तो
बटूँगा कैसे?
कभी छत, कभी चौखट
कभी खिडक़ी,
कभी खम्भों के रूप में
तो कभी अस्तित्व प्रहरी दरवाज़ों के रूप में,
तुम झूठला नहीं सकते
मेरे अस्तित्व को।
अपने वैभवपूर्ण आशियाने के लिए,
दुखती रगों पर लेटी कुटिया के लिए,
अमीरों के आलिशान
पलंग के लिए,
ग़रीबों की टूटी
खटिया के लिए,
तुम झूठला नहीं सकते
मेरे अस्तित्व को।
मासूम बच्चों के सपनीले
खिलौनों के लिए,
बेसहारा, बेबस, मजबूर की लाठी के लिए,
तुम झूठला नहीं सकते
मेरे अस्तित्व को।
लाखों-करोड़ों घरों में
चूल्हा जलाने के लिए
पेट की ज्वाला
मिटाने के लिए, और-
तुम्हारी अन्तिम शय्या के
अलमस्त सेज
डेढ़-दो हाथ का अन्तिम बाण मुखाग्नि के लिए
बन सकता हूँ मैं
कटने के बाद ही।
काटो और काटो
और और काटो मुझे
क्योंकि, कटना ही तो नियति है मेरी।
मगर, मत भूलो
मेरा अस्तित्व
जितना ज़रूरी है,
कटने के बाद
उससे कहीं ज्यादा ज़रूरी है
मेरा ज़िंदा रहना।
प्रदूषण रहित पर्यावरण के लिए
मैं तैयार हूँ कटने को
तुम्हारे अस्तित्व के लिए।
मगर,
अमल करना होगा तुम्हें
एक पेड़ कटने के पहले
अवश्य लगाओगे तुम
दो पौधा
पर्यावरण के नाम पर।
एक मेरे मरने के लिए
एक तुम्हें ज़िंदा रखने के लिए।
याद रहे
हरपल तुम्हें
"तुम मुझे संरक्षण दो,
मैं तुम्हें हरियाली दूँगा,
जीवन भर ख़ुशहाली दूँगा।"
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