संस्कार - कविता - सरिता श्रीवास्तव 'श्री'

आँखों में भर आए आँसू,
मान सम्मान कहाँ से पाएँ।
आजीवन संस्कार सिखाए,
अंत समय पर काम न आए।

तेरे मेरे ख़्वाब वही हैं,
जहाँ आज तू कल मैं भी था।
एक ताल सुन दौड़ा आया,
वहीं आज तू दस पी जाए।

कैसे भूल गया सृष्टि चक्र,
भीष्म पितामह भी मौन रहे।
लाज बचाने पांचाली की,
कोई कृष्ण कहाँ से आए।

अधखुला बदन नाचे बुलबुल,
राहों में सीटी झंकारे।
राधा सीता कहाँ खो गईं,
संस्कार कब समझ में आए।

परिणीता बन पति घर पहुँची,
छ: महीने तलाक़ मुक़दमा।
पिता के घर फाँके पड़ ग‌ए।
पति से गुज़र भत्ता दिलवाए।

बैठ पिता घर पति का पैसा,
ख़ुद के हाथ पैर जंग लगी।
इससे तो अनपढ़ अच्छी है,
कैसी पढ़ी-लिखी महिलाएँ।

कोई गली से कन्या निकली,
पुतली फैल गई बुड्ढों की।
लड़की आँख ओझल हो ग‌ई,
उचक उचक कर नज़र गड़ाएँ।

अपनी बेटी बहना अपनी,
दूजी बेटी सिर्फ़ औरत है।
मौक़ा मिले अंग से खेलें,
शर्म लिहाज़ दूर हो जाए।

संस्कार का ढोल पीटते,
दोनों बेटे ऑफीसर हैं।
छोटा माँ को संग में रखे,
पिता दूजे संग दुख पाए।

मैं तो बिल्कुल टूट चुका हूँ,
संस्कारों के माने बदले।
संस्कृत पर अंग्रेजी भारी,
अब बाल्मीकि न कोई आए।

मुझको ये उम्मीद नहीं थी,
जिसको पिलाया लहू अपना।
मैं "श्री" दशरथ बना हुआ हूँ,
लेकिन राम कहाँ से आए।

सरिता श्रीवास्तव 'श्री' - धौलपुर (राजस्थान)

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