संस्कार - कविता - बृज उमराव

जन्म प्रक्रिया से शूदक हो,
संस्कार से होता पावन।
प्रेम प्यार स्नेह समर्पण,
अन्तर्मन होता उत्प्लावन।। 

संस्कार से सेवित शिशु की,
अपनी छटा निराली। 
तीक्ष्ण बुद्धि कौशल की मूरत,
पुण्य पल्लवित डाली।। 

तीन ऋणों को साथ ले चले,
देव पित्र अरु गुरु का क़र्ज़। 
सेवा में तीनों के तत्पर,
सदा निभाता अपना फ़र्ज़।। 

पुष्पित पोषण स्वस्थ संरक्षण,
शिशु को करे प्रभावित। 
आदर्श संस्कृति से पोषित,
प्रेम रस रहे प्रवाहित।। 

उन्नत पोषित पौधा हो,
विराट वृक्ष बन जाता। 
पर्यावरण संरक्षा करता,
जग की सेवा करता।। 

काम, क्रोध और लोभ,
मोह, ईर्ष्या का संगम। 
सोंच को कर देते दूषित,
मन भी हो जाता जड़ जंगम।। 

जीवन के झंझावातों से,
हरदम होता है दो चार। 
वैदिक संस्कृति संस्कार को,
नमन करे वह बारंबार।। 

आदर्श राह का राही बन,
सर्वोच्च शिखर तक जाता। 
मात पिता गुरु का संरक्षण,
सच्ची राह बताता।। 

सुमधुर, सुन्दर सदा सुहावन,
पोषित पुरुषार्थ तुम्हारा।
अग्रिम पंक्ति में तुम चलते,
पीछे घूमें जग सारा।।

बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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