कब चल दे ज़िंदगानी - कविता - रौनक द्विवेदी

कब चल दे ज़िंदगानी,
आओ जी लें हँस बोल के।
ना किसी से‌ शिकवा,
ना किसी से धोखा,
बस प्रेम की मिश्री घोल के।
कब चल दे ज़िंदगानी,
आओ जी लें हँस बोल के।
ये कब थी हमारी जो हमारी रहेगी,
आज नहीं तो कल अलविदा कहेगी।
कब ढल जाए ये जवानी,
समय का पहिया खोल के।
कब चल दे ज़िंदगानी
आओ जी लें हँस बोल के।
ज़िंदगी की डोर है किसी और के हाथ में,
ना जाने खींच दे कब बात ही बात में।
कोई बन जाए कब कहानी,
कौन रह जाए बिना रोल के।
कब चल दे ज़िंदगानी,
आओ जी लें हँस बोल के।

रौनक द्विवेदी - आरा (बिहार)

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