जीवन की भूल - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

माना कि भूल होना
मानवीय प्रवृत्ति है
जो हम भी स्वीकारते हैं।
मगर अफ़सोस होता है
जब माँ बाप की उपेक्षाओं
उनकी बेक़द्री को भी हम
अपनी भूल ही ठहराते हैं,
वर्तमान परिवेश की आड़ में
उनको गँवार कहते हैं,
सूटबूट में आज हम तो
माँ बाप की अपनी पसंद की ख़ातिर
अपने यार, दोस्तों के बीच
माँ बाप कहने में भी शरमाते हैं।
बात इतनी सी ही होती तो
और बात थी,
देहाती, गँवार मान अब तो
माँ बाप के साथ कहीं
आने जाने से भी कतराते हैं।
जिनकी बदौलत और 
ख़ून पसीने की कमाई से
आज के समाज में हम
घमंड से सिर उठाते हैं,
बस यहीं भूल जाते हैं,
अपने संस्कार बिना परिश्रम
हम अपने बच्चों को सिखाते हैं,
आज हम माँ बाप को 
उपेक्षित करते हैं,
कल अपने बच्चों से 
चार क़दम और आगे जाकर
उपेक्षित होते हैं।
जानबूझकर की गई भूलों को
याद करते और पछताते हैं,
क्योंकि अगली पीढ़ी की 
नज़र में हम आज
गँवार बन जाते हैं,
जीवन में जाने, अंजाने 
भूलों को यादकर पछताते हैं,
तब संसार छोड़ चुके 
अपने गँवार, देहाती माँ बाप
बहुत याद आते हैं।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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