पिता - कविता - डॉ. अमृता पटेल

कई शाम सिसकियाँ ली थीं फ़ोन पर मैंने,
और आप अगले ही दिन मेरे होस्टल में होते थे।
'बालमन' अंदाज़ा ना था उसकी व्यस्तता,
ज़िम्मेदारियों, परेशानियों और मोहब्बत का।।
आज वही अंदाज़ और समझदारी,
चट्टान सा मेरे सीने में आ बैठा है।
जकड़ लिया है, सब तरफ़ से दवा दिया है।
हटाना चाहती हूँ तोड़ गिराना,
इस बोझ को नहीं पसंद है मुझे ये।।
परन्तु निष्फल प्रयास जैसे स्वप्न में,
छटपटाते हों हाथ पैर निष्परिणाम।
मैं आज भी रोकर, चीख़कर जोर से।
रातों को, शामों में, भीड़ में, अकेले में
आवाज़ देना चाहती हूँ आपको।
पूरे गले से, पूरी ताकत से,
परन्तु गला कुछ रुँधा सा है।
उस बोझ ने आवाज़ों को, अन्दर ही घोंट दिया है।।
मार दिया है मुझमें, ही मुझे इसने।
फिर भी मैं ज़िंदा हूँ, एक तीव्र ज्योति चमक सी।।
मेरे ज़हन में अग्नि सी, और तुम्हारी नज़र में कुंदन सी।।

डॉ. अमृता पटेल - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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