मेरी अभिलाषा - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

मेरे मन की यह अभिलाषा,
पूरी हो जन जन की आषा।
मिटे ग़रीबी और निराशा
संस्कार बन जाए परिभाषा।

सबको शिक्षा, इलाज मिले,
अमीर ग़रीब का भाव हटे।
बेटा बेटी का अब भेद मिटे,
मेरे मन की यह अभिलाषा।

गंदी राजनीति न हो,
वादे सारे ही पूरे हो।
ज़िम्मेदारी भी तय हो,
अपनी भी ज़िम्मेदारी हो।

स्वच्छ रहें सब नदियाँ नाले,
कहीं तनिक न प्रदूषण हो।
अतिक्रमण का नाम न हो,
क़ानून व्यवस्था का राज हो।

त्वरित न्याय मिले सबको,
मन में भेद तनिक न हो।
किसी बात का ख़ौफ़ न हो
जग में ख़ुशियाँ अपार हो।

मरने मारने का भाव न हो,
सीमा पर भी न तनाव हो।
भाई चारा सारे संसार में हो,
सबके मन में प्रेमभाव हो।

मँहगाई का वार न हो,
प्रकृति मार कभी न हो।
चिंता की कोई बात न हो,
मन मेंं कपट विचार न हो।

सामप्रदायिक दंगे न हों,
जाति धर्म की बात न हो।
सब चाहें सबका हित हो,
ख़ुशियों का भंडार भरा हो।

सामाजिक कुरीति न हो
बहन बेटियों में न डर हो,
नशे का व्यापार न हो
मेरे मन की अभिलाषा।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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