सरकारी दफ़्तर - हास्य कविता - सौरभ तिवारी

काली रातों में नहीं,
होते अब अपराध।
दिन में दफ़्तर खोलते
साढ़े दस के, बाद।।

ख़ून नहीं, ख़ंजर नहीं
काग़ज़ के हथियार।
लूट डकैती, सब करें
पढ़े लिखी, हुसियार।।

काग़ज़-काग़ज़ माल है
टेबिल-टेबिल, चोर।
लूटनहारे, लूटते
लुटा, करे ना शोर।।

उजले काग़ज़ पे करें
काज सभी संगीन।
काग़ज़ से काग़ज़ मिले
बनें, नोट रंगीन।

बीहड़ सब, ऊजड़ हुए
बाग़ी, बचा न एक।
बाग़ी कुर्सीन पर डटे
दफ़्तर जाकर देख।

चोर गिरहकट, ठग कहें
छीने हमसे, काम।
डाकुन की ये टोलियाँ
करें हमें, बदनाम।।

सौरभ तिवारी - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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