लेखनी - कविता - रतन कुमार अगरवाला

उम्र के इस गुज़रते पड़ाव में,
लिखना जब शुरू किया मैने।
लेखनी से हुई दोस्ती मेरी,
ज़िंदगी का नया रूप जिया मैने।

भावों को शब्दों में पिरोया,
शब्द वाक्य बनते रहें।
वाक्य बनते गए पूरी लेखनी, 
लेखन अपने आप बनते रहें।

बदल गए ज़िंदगी के मायने,
मन में विचार लगे पनपने।
विचारों पर करके मनन,
कविताओं में संजोया मैंने।

नहीं कहता मैं हूँ कोई कवि
पर मन से लिखता हूँ हर कविता।
नहीं हूँ मैं कोई भी लेखक,
पर विचारों की बहती सरिता।

न जाने कहाँ से आते हैं शब्द,
पर शब्द यूँ ही आते गए।
न था मैं कभी कोई कवि,
पर पद्य तो यूँ ही बनते गए।

अजब सी है यह नई दोस्ती,
नशा सा होने लगा है अब।
वक़्त मिलता अब जब भी,
दोस्ती का ख़ुमार चढ़ता जब तब।

सच्ची दोस्ती की सही व्याख्या,
समझ में आने लगी मुझे।
अकेलेपन की सच्ची सखी,
लेखनी लगने लगी मुझे।

सुखद हुआ यह पड़ाव,
गुज़रेगा यूँ लेखन के सहारे।
आसान हो रही ज़िंदगानी,
नए भाव भरे मन के द्वारे।

रतन कुमार अगरवाला - गुवाहाटी (असम)

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