दरवाज़े दीवार हैं अपने,
आँगन बीच खेलते सपने,
मस्तों का झुंड यहाँ रहता है,
गाँव आज भी ऐसा है।।
रिश्तों में मर्यादा निभती,
मिलवर्तन की कलियाँ खिलती,
प्रेम का झरना बहता है,
गाँव आज भी ऐसा है।।
ढोल बताशे नाटक स्वांग,
भोले का प्रसाद है भाँग,
सबको यहीं पर बँटता है,
गाँव आज भी ऐसा है।।
रंगों की पहचान नहीं है,
मज़हबों की दीवार नहीं है,
वेद-कुरान नहीं लडता है,
गाँव आज भी ऐसा है।।
ग़ालिब का पैग़ाम यहीं है,
मुन्शीं का सम्मान यहीं है,
यही "शौक़िया" कहता है,
गाँव आज भी ऐसा है।।
लखन "शौक़िया" - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)