बचाले मेरे गाँव को भगवान - कविता - समुन्द्र सिंह पंवार

पहले जैसा नहीं रहा गाँव आज मेरा।
देख कर माहौल उतर जाता है चेहरा।

देता नहीं कोई अब तो रोटी गाय को,
दूध-दही छोड़कर पीएँ सब चाय को।

चींटियों के बिल पर आटा नहीं डालते,
छोड़कर गाय भैंस अब कुते हैं पालते।

काट डाले पीपल, बरगद और जाल,
सुख गया जोहड़ और सूखा पड़ा ताल।

मिलती नहीं रस्ते में कहीं भी ठंडी छाँव,
क्रिकेट में मशग़ूल भूले कुश्ती के दाँव।

हैं खेत-खलिहान सूने, नाचता नहीं मोर,
चिड़ियाँ नहीं चहकती, अब होती जब भोर।

सावन के झूले गए, गया फागुन का फाग,
डी.जे. के शौक़ में भूल गए रागिनी व राग।

भाई के भी भाई आज नहीं बैठता पास,
इस राजनीति ने किया भाईचारे का नाश।

मंदिर के सामने बिकती है अब तो शराब,
विद्यालय और अस्पताल की दशा है ख़राब।

पीकर शराब करते हैं अब शराबी हुड़दंग,
सुख-चैन मेरे गाँव का हो गया है भंग।

थाने और कचहरी में नित जा रहे हैं केस,
दीन-हीन और शरीफ़ यहाँ भोगते क्लेश।

बेरोज़गारों की तो यहाँ घूमती है अब फ़ौज,
शराब, सुल्फ़ा पीने में समझे अपनी मौज।

ताऊ-ताई, चाचा-चाची रिश्ते खो गए,
अंकल और आंटी ही अब सारे हो गए।

टा-टा, हेलो, हाय गुडबाय अब आ गई,
नमस्ते की जगह ये ही मन को भा गई ।

बड़े-बूढ़ों का अब यहाँ रहा नहीं मान,
कहे पंवार बचाले मेरे गाँव को भगवान।

समुन्द्र सिंह पंवार - रोहतक (हरियाणा)

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