यही सच है - कविता - पारो शैवलिनी

यही सच है, कि-
ज़िन्दगी है 
तो मौत भी होगी।
फिर, 
मौत से डरना कैसा?
बावजूद, हमने देखा है
हर शख़्स को ताकते हुए
दूर कहीं शून्य में।
जीवन के 
इस आपाधापी में 
मौत को 
पल-पल जीते हुए।
यह भी सच है 
ज़िन्दगी और मौत के बीच
क्रॉस पर लटका 
हर इंसान 
ईषा नहीं होता। क्योंकि-
ज़िन्दगी!
सूर्ख लाल अंगारे की तरह बिखरा पड़ा मिलता है
मौत की क्षितिज पर
जहाँ आत्माएँ
ठंडे शरीर का खून पीकर
जश्न मना रही होती है
एक और 
लाश के आने की।
और तब
इंसाफ़ की अंधी तराज़ू
के दो पलड़े
आशा और निराशा
की डगमगाते सतह पर
ज़िन्दगी को ढूँढने वाला
हर वो शख़्स
बे-ईमान नज़र आता है
जो-
ज़िन्दगी को मौत
मौत को ज़िन्दगी 
कहता है।

पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)

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