उम्मीद की लौ - कविता - रूचिका राय

इतना भी मुश्किल नही है बात बेबात मुस्कुराना,
ग़म के अँधेरों में भी दिल में उम्मीद के लौ जलाना।
जब भी टूटने बिखरने का ख़्याल आए तुझे,
बस अपनों का चेहरा तुम्हें है ज़ेहन में लाना।
अपना कौन?
वही जिन्होंने तुम्हें ये बेश-क़ीमती ज़िंदगी दी है,
वही जिन्होनें तेरे लिए हर तकलीफ़ सही है।
वही जिन्होंने तुम्हारे हर तकलीफ़ को समझा,
वही जिन्होनें तुम्हारी हर दुःख में परवाह की है।
इतना भी मुश्किल नही चेहरे पर मुस्कान सजाना,
अपनी हँसी से किसी के चेहरे पर मुस्कान लाओ,
अपनी ज़िंदादिली को किसी की प्रेरणा बनाओ,
हर बुझे दिल में पल भर के लिए उत्साह जगाओ,
फिर क्यों न रब के ऋण को मुस्कान से चुकाओ।
कौन सा ऋण?
इंसान के रूप में जन्म देकर जो नेमत बख़्शी है,
उसके ऊपर से माँ बाप के रूप में जन्नत बख़्शी है।
फिर परवाह करने वाला प्यारा सा जो परिवार दिया,
जीवन में इतना दुलार मान और सम्मान दिया।
इस ऋण की क़ीमत अपने ही मुस्कान से चुकाना,
टूट जाओ फिर भी हर हाल में जुड़ कर दिखाना।
अपने हँसी से दर्द के दरीचे पर पर्दे है तुम लगाना,
दिल में कितने ही ग़म हो फिर भी तुम मुस्कुराना।

रूचिका राय - सिवान (बिहार)

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