मेरा मुस्तक़बिल नज़र आता हैं - नज़्म - कर्मवीर सिरोवा

सुनकर ये मधुर धक-धक की आवाज़ ये सच मन में जागा है,
हो न हो दिल रुपी सरिता में तेरे नाम का कंकड तसव्वुर ने फेंका है।

तुम धरती पर मूर्त की सबसे उजली तस्वीर हो, 
शर्म के पैरहन से लदी तुम्हारी ये मासूमियत,
बरबस तेरे कोमल चेहरे की लकीरों पर मेरी आँखों ने तीर छोड़ा है।

तेरे जिस्म की सौंधी ख़ुशबू मेरे तन के साँचे से यूँ लिपटी है,
जैसे बारिश के बाद गीली मिट्टी का महकता जिस्म सब्ज़ घास के गले से लिपटा है।

फ़ुर्क़त है तो क्या, मै ख़ुश हूँ क्योंकि हिज़्र की इन स्याह रातों में
तेरे नाम का किरदार आसमाँ से मेरा हाल जानने, मुझसे बतियाने आता है।

अल्फ़ाज़ों में कहूँ तो हैरान हूँ कि अल्फ़ाज़ नहीं है बताने को,
बस इतना सा इल्म है कि मुझें तुझमें मेरा कल, मेरा मुस्तक़बिल नज़र आता हैं।

आओ, एक बार इन नैनों के खेत पर प्रेम के बीज बो दें,
बादल भी सावन बनकर आँखों से बरसेगा, 
तू फ़क़त दीदार की इक तारीख़ तो दें।

सुनसान रात है, हवा ठहरी सी है, तारें भी धुँधलें से हैं, 
चाँद भी ऊषा की गोद मे सोने जा रहा हैं,
लगता है फिर तेरी याद का परवान नयनों की बूँद-बूँद स्याही से काग़ज़ पर टपक कर कोई नज़्म ले आया हैं।

आँखें अब बोझिल सी हो गई है, रात जो पैदल इन आँखों पर हौले-हौले से गुज़री है,

माहताब के दुधिया कपोलो की जवानी भी अब ढलने लगी है,

तुझे भी अब मिरी आँखों में ढ़कना है 
क्योंकि नग्न आँखें तुम्हारी तलाश में हैं, 
दिन जो अब उठने वाला है...

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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