ज़िंदगी तो बस चल रही है,
जैसे हाथो से रेत फिसल रही है।
कच्ची कली सी है ज़िंदगी,
सुनहरे फूलों सा खिल रही है।
ओश की बूँदे है ज़िंदगी,
पत्तियों से यूँ निथर रही है।
सूर्य किरण के साथ ज़िंदगी,
फ़ज़ा में देखों बिखर रही है।
सूरज के साथ उगता है और,
उसी के साथ ही ढल रही है।
दोपहर की धुप तपती ज़िंदगी,
मानो सुखे पत्तों सा हिल रही है।
पड़ा हुआ है, शील सा यह तन,
बस मन ही, आगे निकल रही है।
समय के शैय्या पर लेटे यह,
सपनो को मीठे बून रही है।
क्या सोचना है, अब आगे की,
जीवन डोर है, नाज़ुक धागे की।
मुसाफ़िर है, यह दुनिया में,
मंज़िल की ओर बढ़ रही है।
ज़िंदगी तो बस चल रही है,
जैसे हाथो से रेत फिसल रही है।
मिथलेश वर्मा - बलौदाबाजार (छत्तीसगढ़)