निश्छल बचपन - कविता - सुनील माहेश्वरी

थोड़े हठीले थोड़े चंचल,
थोड़े होते हैं ये नादान।
थोड़ी शरारत थोड़ी मस्ती,
दिन भर का है ये काम।

अपनी ही दुनिया में ख़ुश रहते,
खिलौनों से है बेहद प्यार।
मिल जुल साथ सभी खेलते,
नहीं रखते कोई तकरार।

नन्हे नन्हे क़दमो से,
नाप आते खेत, खलिहान।
तृण भी खिल उठता तब,
क़दमो की कर पहचान।

इनसे बच कर रहना भैया,
राज़ ये सारे खोलें।
जब हो सामने ये जासूस बच्चे,
तो कुछ हौले ही बोलें।

ख़ुश हो उठता है मन,
जब बच्चों संग हम खेले।
छूमंतर हो जाते संकट,
न कोई झेल झमेले।

कोमल और भावुक होते हैं,
झट डाँटो डर जाएँ।
अंजानो के सामने वो,
नौटंकी कर शरमाएँ।

इनसे गर हम सीख लें,
अपनापन जग का सारा।
नहीं होगा फिर क्लेश कोई,
अद्भुत होगा फिर नज़ारा।

सुनील माहेश्वरी - दिल्ली

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