दुख भरे माहौल में,
अपना व्यापार चला रहा हूँ,
सफ़ेद कपड़ा जिसे कहते हैं,
कफ़न मैं बाँट रहा हूँ।
इस साज़ो-समान से,
जलता है चूल्हा मेरे घर का।
जिसके घर जाता है,
बुझ जाता दीपक उस घर का।
कैसा ये मंज़र है,
देखकर दिल से रो रहा हूँ।
बेचकर चंद कपड़ों के टुकड़े,
अपना भविष्य बो रहा हूँ।
चारों तरफ़ है मौत बंट रही,
सुकून कहीं से भी मिले ना।
कौन सी ऐसी दौलत है,
बिन दाम भी कोई ख़रीदे ना।
रूह काँपती है आदम की,
फिर भी मैं अपनी बात कह रहा हूँ।
सरकार सुने न किसी की बात यहाँ,
ले लो मैं कफ़न बाँट रहा हूँ।
आर एस आघात - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)