भेड़-चाल - कविता - विनय "विनम्र"

भेड़-चाल...
सदियों से द्विविधा जनित भंवर में
फँसता है मानव बार-बार,
उठता कभी गगन छूनें को
पकड़ नहीं पाता आकार।
चलता पग में ठोकर खाता
फूल, पल्लवों को लालच में
तोड़-तोड़ कर अनायास
पावन उपवन को करता घायल।
फिर भी लेकिन है वहीं खड़ा
बेचैन, विवश, बेहाल
भेड़-चाल...।
ललकार रहा है उस भुजंग को
जो विषधर व प्यासा तरंग हो,
शासन की सत्ता जिनके पग में
ज्यों वासुकी लपेटता मंदराचल को
विष फेन निकलता ज्यों है तरल
सब दूर भागते एक साथ,
पीकर अमृत उस धूत तत्व को
शिव बन जाते हैं महाकाल।
पर ये असत्य के पक्षकार
अमृत पीकर भी हैं बेहाल
दूर भागते सत्य देखकर
ज्यों सिंह से डरता है शृगाल
भेड़-चाल...।
अनंत ग्रहों की गणना से
तारामंडल की रचना ये,
हृदय में अविरल प्रेम तरल
अंतरमन में सुरसरि निर्झर।
अमृत पावस को त्याग खिन्न हो"
जलता कृशानु में छिन्न भिन्न हो
उठता गर्जन कर मेघ सदृश्य
पर तरल नहीं अग्नि बरसाता,
नव पल्लव के तरुण कोपलों 
सा क्षणभंगुर है जल जाता।
पर उपक्रम के अंतराल में
भूत भविष्य का महाजाल
भेड़-चाल..।।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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