अग्नि - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

हे! अग्निदेव हे! प्रलयंकर,
तेरे कितने अद्भुत स्वरूप।
तुम पंचतत्व के प्रबल अंग,
तुम सूर्य देव के एकरूप।

तुम से ही भोज्य बने भोजन,
तुमसे ही रोटी पकती है।
जब शरद ऋतु की ठिठुरन हो,
तुम से ही गर्मी मिलती है।

फेरों के साक्षी तुम बनते,
जब परिणय जोड़ी सजती है।
बन जाते तुम हो काम दूत,
जब प्रेम अगन जल उठती है।

जब क्रोध तुम्हारा रूप धरे,
ईर्ष्या  की आग पनपती है।
प्रतिशोध भरा जब हृदयों में,
तब अग्नि भाव में जलती है।

तुम से ही सजता हवन कुंड,
तुम से ही ज्योति मिलती है।
जब देह त्यागता मानव है,
तब मुक्ति तुम्हीं से मिलती  है।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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