फैमिली डे - लेख - मंजरी "निधि"

वर्तमान समय में समाज जिस गति से बदल रहा है, सभी आपस में जब भी मिलते है या बात करते हैं तो एक ही बात करते हैं - "पहले तो ऐसा नहीं होता था"l अब आपको नहीं लगता कुछ बदला बदला सा दिख रहा है? आख़िर क्या बदला है? पानी का रंग, फलों की मिठास, फूलों की सुगंध, चिड़ियों का चहचहाना या पत्तों का रंग? इन सबको छोड़िए कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा देखने का नज़रिया ही बदल गया है? जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, जैसी नज़र वैसा नज़ारा। इंसान इंसान में सिर्फ बुराइयाँ ही देख रहा है, ढूँढ रहा है। उसकी अपनी दृष्टि में दोष है और वही वह रचता चला जा रहा है। किसी कवि ने क्या खूब कहा है कि खिड़की की सलाखों से बाहर झाँक कर देखा तो नीचे कीचड़ और ऊपर चाँद पाया। ये हमारा नज़रिया ही तो है कि हम क्या ढूँढ रहे है? हम यही बातें अपने ड्रॉइंग रूम से लेकर ऑफ़िस के गलियारों तक, प्लेटफॉर्म से लेकर शादी के शामियाने तक सिर्फ़ और सिर्फ़ बुराइयाँ ही ढूँढ रहे हैं और उन्हीं को बढ़ा चढ़ाकर बयाँ करते चलें जा रहें हैं। हम समाज का एक ऐसा आइना बच्चों के सामने पेश करते हैं जो उनकी परवरिश के दौरान सही नहीं है। परिवार में भी हम एक पॉजिटिव इनवायरमेंट क्रिएट नहीं कर पा रहे हैं। अपने परिवार के साथ जब भी हम बैठते हैं तो आस पड़ोस की, सगे सम्बन्धियों की सिर्फ़ और सिर्फ़ बुराइयाँ ही करते हैं या उनमें दोष ढूँढते हैं और उन्हीं बुराइयों के माध्यम से हम अपने बच्चों को अच्छी सीख देने का दावा करते हैं कैसे? अच्छी बातें अच्छी आदतों को, अच्छे अनुभवों को बच्चों के साथ साझा करें और घर में एक पॉजिटिव इनवायरमेन्ट क्रिएट करें।

हम एक दिखावे की ज़िंदगी जी रहे हैं। इसे हम मान लें, समझ लें। दिवस हम बहुत मनाते हैं। कुछ दिवस पूर्व हम फॅमिली डे मना रहे थे। सारा व्हाट्सअप का इनबॉक्स भर गया था और बिना पढ़े हमने डिलीट किया। मैं सोच रही हूँ कि हम आज के दिन अपने परिवार में महज़ एक दिखावे की राजनीति जी रहे हैं। हम कुछ बेशकीमती उपहारों के ज़रिए रिश्ते खरीद रहे हैं। क्या हम इतने भोले हैं कि भूल गए कि रिश्ते बिकाऊ नहीं होते। इस खरीद फ़रोख़्त की दुनिया से बाहर आएँ। अपने बच्चों को जीवन के अर्थ की सही पहचान कराएँ। हमने तो उन्हें भी इस वैश्विक दौड़ का हिस्सा बना दिया। उनकी विशेषताओं और खूबियों को दरकिनार कर दिया। उनकी भावनाओं को कुचल कर रख दिया और बड़ी ही मासूमियत से कह दिया "हमने यह तो नहीं कहा था"l हम क्यों किसी ऊँचे पद और प्रतिष्ठान के लालच में अपने बच्चों से उनका बचपना और उनकी मासूमियत जाने अनजाने में छीन रहे हैं। प्यार, विश्वास और उम्मीद से सराबोर एक ज़िंदगी अपने बच्चों को दीजिए, उन्हें पहचानिए और महसूस कीजिए।

मंजरी "निधि" - बड़ोदा (गुजरात)

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