ईश्वर की चाह - लघुकथा - गोपाल मोहन मिश्र

अपने गुरु के पास जाकर वो बार-बार पूछता - गुरुदेव मुझे भगवान की प्राप्ति कैसे होगी? मुझे ईश्वर के दर्शन कब होंगे? गुरु उसे बार-बार समझाते कि जब तक उसके दिल में ईश्वर के प्रति पुकार नहीं उठेगी, तब तक ईश्वर के दर्शन उसे नहीं हो पाएँगे।

शिष्य को यह बात समझ में नहीं आती। उसने ईश्वर की प्राप्ति के लिए अपना घर बार छोड़ दिया था। उसे गुरु जैसा करने के लिए कहते, वह वैसा करता। सुबह शाम ध्यान करता, शाकाहार का पालन करता, हमेशा सत्य बोलता, किसी के प्रति मन में घृणा का भाव नहीं रखता। इन सब चीज़ों के बावजूद भी उसे ईश्वर के दर्शन नहीं हो पा रहे थे। उसकी आत्मा उद्वेलित हो चुकी थी। उसे गुरु बार-बार बोल रहे थे कि तुम्हारे दिल में उस तरह की पुकार नहीं उठ रही है, जिस तरह के पुकार की ज़रूरत होती है ईश्वर की प्राप्ति के लिए।

एक दिन वो गुरुदेव के पैरों में जाकर गिर गया। वह बोला - गुरुदेव मेरे मन में जो भी कमी है, मेरे दिल की पुकार में जो भी कमी है, आप मुझे समझाएँ।
गुरुदेव ने कहा - ठीक है कल सुबह जब मैं नदी में स्नान के लिए जाऊँगा तब आ जाना। अगले दिन सुबह गुरुदेव अपने शिष्य के साथ नदी में स्नान को चल पड़े।
जब दोनों नदी में स्नान कर रहे थे और पानी दोनों के गर्दन तक आ गया, तो अचानक गुरुदेव ने अपने शिष्य की गर्दन को पानी के भीतर डाल दिया। शिष्य के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वह किसी तरह अपना सर बाहर करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन गुरुदेव ने ज़बर्दस्ती उसके सर को पानी के भीतर ही डाले रखा। वह बेचैन हो उठा। उसकी साँस फूलने लगी। उसे लगा कि उसकी मृत्यु आज ही हो जाएगी।

एक-एक क्षण शिष्य के लिए साल जैसे दिखने लगे। उसकी आत्मा साँस के लिए तड़पने लगी। उसका पूरा का पूरा ध्यान अपने जीवन को बचाने में लग गया। वह जितनी कोशिश करता, उसके गुरुदेव अपने मजबूत हाथों से उसके सर को और नीचे डाल देते। धीरे-धीरे उसकी आत्मा अंधकार में डूबने लगी। उसे लगने लगा कि उसका अंतिम क्षण आ गया है। ठीक उसी समय गुरुदेव ने उसके सर को पानी के ऊपर छोड़ दिया।
जब उसका सर पानी के ऊपर आ गया, तब उसकी जान में जान आई। उसके गुरुदेव ने बताया कि जब तुम्हारा सिर पानी के भीतर था और जिस तरह से तुम्हारी आत्मा साँस के लिए बेचैन थी, जिस तरह से तुम साँस लेने के लिए बेचैन थे, यदि इसी तरह की पुकार तुम्हारे दिल में ईश्वर के लिए उठे, तो तुम्हें ईश्वर के दर्शन अवश्य हो सकते हैं। शिष्य को यह बात समझ में आ गई कि केवल घर छोड़ने से ही ईश्वर के दर्शन नहीं होते, बल्कि ईश्वर के दर्शन के लिए उनके प्रति तीव्र चाह का होना बहुत ज़रूरी है।

गोपाल मोहन मिश्र - लहेरिया सराय, दरभंगा (बिहार)

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