यूँ ही नहीं - कविता - संतोष ताकर "खाखी"

यूँ ही नहीं मिलती राहों की छाँव,
कड़ी धूप में चलना पड़ता है।
पूछा, बाज़ से कैसे पाई नई चोच पंखों के साथ, 
बोला, टकराना पड़ता है चट्टानों से,
पल-पल ख़ुद को नोचना पड़ता है।।

यूँ ही नहीं मिलती सपनों की मंज़िल,
कुछ नींद जलानी पड़ती है।
पूछा, राही से कैसे मिली दिशा नई,
बोला, आग लगानी पड़ती है भूख-प्यास को,
पल-पल ख़ुद को घिसना पड़ता है।।

यूँ ही नहीं मोहब्बत मुकम्मल हो जाती,
कुछ रूह के एहसास को रूहानी करना पड़ता है।
पूछा, राँझा से कैसे इश्क़ पर राज़ हुआ,
बोला, लहरों में भी नाव को थामे रहना पड़ता है,
पल पल वफ़ा के समंदर से होकर गुज़रना पड़ता है।।

यूँ ही नहीं लिखते इतिहास में नाम ,
कुछ दुनिया से हटकर करना पड़ता है।
पूछा, आइंस्टीन से कैसे पाया यह नाम जग में,
बोला एक ललक रखनी पड़ती है,
पल पल एक विश्वास की डोर बाँधे रखनी पड़ती है।।

सन्तोष ताकर "खाखी" - जयपुर (राजस्थान)

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