वृक्षों की ढलान - कविता - विनय "विनम्र"

कभी वादियाँ गुलज़ार थीं,
पेड़ों की बस दीवार थी,
पक्षियों की चहचहाहट
क्षितिज के भी पार थी।
हुक्मरानों की सभा या
मासूम का हो बचपना,
हर किसी की छाँव का
पेड़ हीं था आसियाँ।
समय के बदलाव में,
आधुनिकता की आँधियाँ,
बर्बाद अब थी हर फ़िज़ा,
ख़त्म थी वो वादियाँ।
कंकरीटों की फ़सल
छूनें लगी आकाश को,
बस दिखानें की सनक
हर शख़्स में विकास को।
कृतिम अब संयंत्र सब,
मानव बना है यंत्र अब।।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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