ख़ामियाँ - ग़ज़ल - कृष्ण गोपाल सोलंकी

ख़ामियाँ ख़ुद की दिखें ना गैरों की गिनवाते हैं,
दीवारों के कान हो गए रोशनदान बताते हैं।

कोयल अचरज़ में बैठी है जंगल की अफ़वाहों से,
शहरों में कुछ कव्वे हैं जो मीठा गीत सुनाते हैं।

नया ज़माना, नई सोच है राय किसी को क्या देना,
वही हमें पागल कहता है जिसको भी समझाते हैं।

नये दौर में कुत्तों का भी डोल गया ईमान यहाँ,
चोरों के तो तलवे चाटें और मालिक पर गुर्राते हैं।

अपनें मेरा हुनर देख कर पीठ ठोकते हैं 'गोपाल',
जिनकी आँखों में चुभता हूँ सत्तर ऐब गिनाते हैं।

कृष्ण गोपाल सोलंकी - दिल्ली

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