नव सृजन - कविता - विनय "विनम्र"

कारवाँ थम सा गया है,
श्वास भी रुकने लगी,
बस सब्र से देखो "विनम्र"
ये आ गई कैसी घड़ी।
ये अग्नि की भीषण लपट
है छू रही आकाश को,
इत्मीनान से इंतज़ार में,
देखो खड़ी इस लाश को।
सब्र भी जब टूटता है,
मूल सबको लूटता है,
गर्त के गुबार से
नव सृजन फिर से फूटता है।
राख उडकर हवा संग,
ढूँढ लेती नया रंग,
बारिशों में भींगकर
पुनः मिलती मूल संग।।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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