फ़ुरसत के कुछ पल - कविता - ममता रानी सिन्हा

हैं फ़ुरसत के कुछ पल क्या,
अब भी तुम्हारे पास मेरे लिए,
मेरी कुछ इंतज़ार करती शामें,
खड़ी हैं अब भी तुम्हारे लिए।

याद है अब भी तुमको क्या!
हाथों में हाथ डाल बागों में वो घूमना,
नज़रों से एक साथ फूलों को चूमना,
एक दूसरे से टकराकर नज़रों का शर्माना,
और शरमा के दूसरी तरफ़ देखने लगना।
याद है अब भी तुमको क्या...

याद है अब भी तुमको क्या!
वो ख़्वाब जैसे शाम की आधी छुपी धूप,
थोड़ा अँधेरा थोड़ा उजाला मैं-तुम,
ठंढी हवाओं का वो मदहोश रूप,
पीछे मेरे गली के कोने तक आ रुक जाना।
याद है अब भी तुमको क्या...

याद है अब भी तुमको क्या!
नदी किनारे साथ में एक पत्थर पर बैठना,
तुम्हारा बहते पानी मे दूर कंकड़ उछालना,
अपने पैरों को मुहब्बत के पानी में डुबाना,
कभी उँगलियों से पानी मेरे रुख़ पे फेंकना।
याद है अब भी तुमको क्या...

याद है अब भी तुमको क्या!
बिना मुक़र्रर एक ही वक़्त छत पे आना,
अकेले मग़र आमने-सामने साथ होना,
छुपाते तड़पते डरते नज़रों का मिलना,
और तुम्हारा मेरे धड़कते दिल को बुलाना।
याद है अब भी तुमको क्या...

याद है अब भी तुमको क्या!
मेरी ओर न देख कर भी मेरे लिए गुनगुनाना,
दिल में सुकून के साथ तूफ़ान खड़ा करना,
तुम्हारा वो प्यार भरा दिलकश नग़मा,
"तुम आ गए हो नूर आ गया है",
याद है अब भी तूमको क्या...

हैं फ़ुरसत के कुछ पल क्या,
अब भी तुम्हारे पास मेंरे लिए,
मेरी कुछ इंतज़ार करती शामें,
खड़ी हैं अब भी तुम्हारे लिए।
खड़ी हैं अब भी तुम्हारे लिए।

ममता रानी सिन्हा - रामगढ़ (झारखंड)

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